स्त्री तंत्र की व्याख्या भाग 2
( प्राकृतिक नियमों के अनुसार मानव विकास की प्रक्रिया के लिए सिद्धांतों का प्रतिपादन)
श्रीमती दीपिका महेश्वरी 'सुमन' अहंकारा
संस्थापिका सुमन साहित्यिक परी नजीबाबाद बिजनौर
अध्याय चतुर्थ
आप सभी के लिए एक और सवाल है कि सृष्टि कि, सभी जीवो में अपनी प्रजाति के विकास के लिए आखिर नर द्वारा ही मादा को क्यों रिझाया जाता है? मादा सृष्टि के विकास के लिए नर की विनय क्यों नहीं करती? इस एक सवाल पर बड़े-बड़े महारथियों की बुद्धि में उलझे सारे संशय धुल जाएंगे, जिन्होंने ब्रह्म के रूप में पुरुष तत्व को स्त्री जाति से ऊंचा स्थान दे मानवीय समाज के नियमों की संरचना की है।
आपके लिए दूसरा सवाल, यदि प्राकृतिक नियम के अनुसार, अधिकांश मादाएं अपने हिस्से का सृजन कर, उस सृजन को छोड़कर चली जाती है और मादा के सृजन की रक्षा प्रकृति में योगिनियाँ करती हैं, तब इस प्राकृतिक नियम के ऊपर, आपने जो सामाजिक व्यवस्था की है, वह किस से पूछ कर की? क्या समाजिक व्यवस्था करने वाले प्राकृतिक नियम को गलत साबित कर रहे थे? यदि प्राकृतिक नियम पर उंगली उठाई गई, तो आपका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और वही हो रहा है, जिसने समाजिक व्यवस्था के लिए नियम तय किए, अर्थात पुरुष वर्ग, जिसने प्राकृतिक नियम के खिलाफ सामाजिक व्यवस्थाएं की हैं, उनका अपना अस्तित्व पिता के रूप में खतरे में पड़ रहा है।
यदि किसी से वार्तालाप करो, प्रकृति में उत्पन्न सभी जीवो के बारे में तो, वह पेड़ पौधों के बारे में बात करने लगता है, आखिर क्यों? क्या तुम पेड़ पौधे हो? एक बनस्पति हो? हो तो जीव ही ना! तो जीवों के जीवन चक्र के बारे में बात करके अपनी बात को सिद्ध करो! ना तो पेड़ पौधे बन सकते हो, नाहीं उनका जीवन चक्र जी सकते हो। जो तुम हो उस प्रकृति के बारे में बात करो! संसार के सभी प्राणी, जो सांस लेते हैं, भ्रमण करते हैं। वे भ्रमण कर अपना पालन पोषण करते हैं, परंतु पेड़ पौधे वनस्पतियों का जीवन चक्र प्राणियों से भिन्न है। वे भ्रमण कर जीवन व्यतीत नहीं करते और ना ही उन्हें किसी काम क्रिया से गुजरना होता है, इसलिए इस चर्चा में प्रकृति के केवल उन जीवो का ही वर्णन किया जाएगा, जो सृष्टि के विकास के लिए काम क्रिया से होकर गुजरते हैं।
मानव जाति में उत्पन्न सभी जीवो का सबसे पहला प्रमुख कर्तव्य अपना संपूर्ण विकास हो जाने के बाद मानव सभ्यता का विकास करना है और यह विकास प्रकृति में, जिस नियम के आधार पर होता है, मानव जाति में जब तक, उस नियम का आधार लागू नहीं होगा, तब तक प्रकृति विनाश करती रहेगी, इसलिए सभी के लिए यह जानना जरूरी है, कि प्रकृति में जीवो का विकास किस प्रक्रिया के तहत किया जाता है और किस नियम से किया जाता है। इसका अध्ययन, प्रत्येक मनुष्य का मूलभूत कर्तव्य है।
'तर्क और कुतर्क में अंतर'
जब हम उन उदाहरणों का समावेश कर अपनी बात को सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, जिस प्रकृति के हम हैं नहीं, जो जीवन हम जी नहीं सकते, तो वह कुतर्क के अंतर्गत आता है और जिस प्रकृति के हम हैं, जो जीवन हम जी सकते हैं, उसके आधार पर दिया गया कोई भी उदाहरण तर्कसंगत कहलाता है।
एक बात और स्त्री अपने आप में इतनी विशाल है कि, वह प्रकृति में वनस्पति जैसा जीवन जीती है, मानव योनि में पैदा होने के बाद भी और पारिवारिक व्यवस्थाओं ने उसे जड़ तत्व के रूप में एक जगह रहने की व्यवस्था दी है, इसलिए वह पूर्ण रूप से वनस्पति पेड़ पौधों के जैसे अपना जीवन जीती है, इसलिए स्त्री अपने उदाहरणों में प्रकृति की वनस्पतियों का उदाहरण दे सकती है, लेकिन पुरुष ना तो पेड़ पौधों सा जीवन जीता है, ना ही वह उदाहरण दे सकता है।
दूसरी बात, अक्सर पुरुष अपने आपको वृक्ष बता कर यह उदाहरण देता है, कि जो वृक्ष फल फूलों से ज्यादा होता है, वह झुकता है तो यह उदाहरण उनके लिए बना ही नहीं है, इसलिए यह उदाहरण उनका कुतर्क है, क्योंकि उनके अंदर से कोई फल या फूल पैदा हुआ प्रत्यक्ष रुप से दिखाई नहीं देता। पुरुष सिर्फ स्रोत मात्र है और प्रकृति इस बात की गवाह है कि धरा में बीज कई तरह से बोया जाता है। वहीं इसके उलट स्त्री में फल फूल पैदा होते हुए, प्रत्यक्ष रुप से दिखाई देते हैं क्योंकि वह प्रकृति की तरह पैदा करती है वह स्वयं प्रकृति है।
पुरुष वर्ग के कुतर्क पर की गई, जितनी व्यवस्थाएं हैं उनसे पिता तत्व तो जरूर उत्पन्न हुआ, लेकिन अब उस पिता तत्व के विलीनीकरण का समय आ गया है।
यदि पिता तत्व का अस्तित्व चाहते हैं तो, मानव योनि के रहन-सहन के नियम स्त्री तंत्र पर आधारित कीजिए और उसके हिसाब से जीवन में व्यवस्थाएं कीजिए क्योंकि पुरुष प्रधान समाज तो सतयुग से, कलियुग तक चला आ रहा है, फिर भी आप पिता तत्व के विलीनीकरण को नहीं रोक पा रहे हैं, इसलिए अब यह जरूरी हो जाता है कि, पिता तत्व के विलीनीकरण को रोकने के लिए स्त्री तंत्र के हिसाब से जीवन के नियमों का निर्धारण हो।
प्रकृति का गहन अध्ययन करने पर, प्रकृति में उत्पन्न सभी जीव वयस्क होने पर, अपनी प्रजाति के विकास की ओर संलग्न होते हैं, और प्रकृति में उत्पन्न सभी जीवो के लिए एक नियम है, कि इस विकास के लिए सभी प्रजातियों के नर उनकी प्रजातियों की मादाओं को तरह-तरह की क्रियाओं से रिझाते हैं, ताकि वह सृष्टि में उनकी प्रजाति के विकास के लिए उनको अपना सहभागी बनाएं, और यह निर्णय मादा पर निर्भर होता है कि, वह किस नर के साथ मिलकर अपनी प्रजाति को विस्तार देती है, और इस नियम को सभी सर झुका कर मानते हैं, परंतु मानव योनि में इस नियम की अवहेलना की गई आखिर क्यों? क्या अवेहलना यह सिद्ध करती है कि, जिसने प्रकृति के इस नियम की अवहेलना की उस के दिमाग में प्रकृति से ज्यादा बुद्धि है, नियम बनाने की उस पर चलने की। उससे भी ज्यादा बुद्धि!!! यह नियम सबसे पहले तोड़ा गया श्वेतकेतु ऋषि द्वारा, जिन्होंने अपनी मां पर प्रतिबंध लगाया और जिसे सारे पुरुष समाज ने एक स्वर में मान लिया। पुरुष वर्ग को बलशाली बनाने के लिए, जिससे पुरुष वर्ग की ढीतता को बल मिलता चला गया।
प्रकृति स्त्री तंत्र के हिसाब से चलती है। मानव योनि के अलावा, सभी जातियों के प्राणी, स्त्री तंत्र के हर नियम को मानते हैं। लोग यह तर्क देते हैं कि, इस को मानने वाले जानवर और पक्षी तथा कीड़े मकोड़े हैं। मेरा सवाल यह है कि, सभी प्रजाति के पशु पक्षी स्त्री तंत्र को मानने के बावजूद अपने स्वभाव से विचलित नहीं है, जबकि मानव अपने बनाए हुए नियमों पर चलकर दैत्य बनता जा रहा है, स्वभाव से और दैत्य ही पैदा कर रहा है। क्या इस बात पर सोचने की मानव को जरूरत नहीं है? जिसने प्रकृति के नियम के विपरीत सभ्यता का प्रादुर्भाव किया।
मेरा सवाल ये भी है कि, यदि प्रकृति में मादा जाति इतनी स्वतंत्र और स्वच्छंद है कि, वह एक से ज्यादा नर को प्रजाति के विकास के लिए चयन कर सकती है, तब मानव योनि में किस अधिकार से पुरुष वर्ग ने स्त्री जाति की स्वच्छंदता पर बंधन लगाए, जबकि पुरुष वर्ग स्त्री द्वारा ही पैदा किया जाता है। प्रकृति के नियम पर रोक लगाने की हैसियत ईश्वरीय सत्ता की भी नहीं, क्योंकि उन्होंने ही प्रकृतिक नियम बनाए हैं, फिर किस हक से पुरुष वर्ग ने यह नियम पलट दिए? क्या स्त्री के एक अंश मात्र बुद्धि से विकसित होने के बाद, पुरुष वर्ग की बुद्धि ज्यादा काबिल हो जाती है, इतनी काबिल कि, प्राकृतिक नियमों को बदल सकें। स्त्री की स्वच्छंदता को व्यभिचार का नाम देकर पलट देने की प्रवृत्ति, प्रकृतिक नियमों के अनुसार गुनाह है। स्त्री की मर्जी के बगैर स्त्री को छूना व्यभिचार कहलाता है, चाहे वह आपकी पत्नी ही क्यों ना हो। किसी भी पुरुष को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी कामेच्छा की पूर्ति के लिए किसी भी स्त्री को उसकी मर्जी के बगैर छू सकें। स्त्री की प्रकृतिक नियमों के विरुद्ध स्वच्छंदता पर बंधन लगाकर, पुरुष को वही स्वच्छंदता देने के कारण आज मानव जाति में दैत्यों की पैदाइश और समावेश बढ़ा है।
मुझे मेरे सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला कि, पुरुष में इतनी बुद्धि कैसे उत्पन्न हुई? कि वह प्राकृतिक नियम को बदलकर जीवन जी लेगा और अपना अस्तित्व बचा पाएगा। अपने कुतर्कों को साबित करने के लिए उसने परम ब्रह्म उत्पन्न कर दिया, जबकि यदि परब्रह्म पिता रूप में होता तो पिता द्वारा ही संतान पैदा होती। पिता केवल एक स्रोत होता है। क्या इस सवाल को अब सोचने की जरूरत नहीं है, सारे जहान को!! क्योंकि केवल भारत ही संसार नहीं है, संसार में और भी देश हैं जो स्त्री तंत्र पर विद्यमान है। भारत में वैदिक हिंदू धर्म स्त्री शासित था, इसलिए वह महान था। जब तक भारत की नियमावली फिर से स्त्री तंत्र पर विद्यमान नहीं होती, तब तक वह विश्व गुरु नहीं बन सकता।
किसी भी एक विद्वान को पुरुष वर्ग में यह नहीं पता कि, आखिर प्रकृतिक नियम को पलटने की बुद्धि पुरुष वर्ग में कहां से आई? और सदियों से शिक्षा दे रहा है, स्त्रियों को सही गलत दिशा बताकर दिशानिर्देशों पर चलने की। वाह रे मेरे हिंदुस्तान वाह! बहुत गजब का है तू।
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