सोमवार, 19 जुलाई 2021

स्त्री तंत्र की व्याख्या भाग 2 ( अध्याय 5)

 स्त्री तंत्र की व्याख्या भाग 2


( प्राकृतिक नियमों के अनुसार मानव विकास की प्रक्रिया के लिए सिद्धांतों का प्रतिपादन)

      श्रीमती दीपिका महेश्वरी 'सुमन' अहंकारा
संस्थापिका सुमन साहित्यिक परी नजीबाबाद बिजनौर



अध्याय पंचम


भारत में सिर्फ पुरुष वर्ग के गिद्दे गाये जाते हैं। भारत के लोग भूल गए हैं कि, भारत के बाहर भी दुनिया है। भारत में व्यास, सूर, कबीर, तुलसी का लिखा बच्चे बच्चे की जुबान पर है, परन्तु किसी महिला का लिखा एक भी शब्द आम जन को नही पता आखिर क्यों? जबकि इनसे हट कर हमारे देश में 12 ऋषिकाएँ भी हुईं, जिन्होने बहुत कुछ लिखा, पर उनका लिखा आमजन को तो क्या सारे साहित्यकारों को भी नहीं पता। सवाल यही है कि, क्यों सिर्फ पुरुष वर्ग का लिखा आमजनता जान पाई? क्या 12ऋषिकाओं ने एसा कुछ भी नही लिखा जो आमजनता को जानना चाहिये था?

ज्यादातर लोग भारत में दुनिया का प्रारंभ सतयुग से ही  समझते हैं, इसलिए सतयुग से ही शुरुआत कर रही हूं, अपने सवालों को रखने की। सबसे पहले तुलसीदास, जिन्होंने रामचरितमानस लिखी, जिसके अरण्यकांड में सिर्फ स्त्रियों की बुराई है। स्त्रियों की बुराई कहूंगी क्योंकि उनका मंतव्य चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन उनका लिखा हुआ सब कुछ स्त्रियों की बुराई के रूप में विख्यात हुआ, और वैसे भी जहां तक मैंने पढ़ा है तुलसीदास जी ने अपनी पत्नी के व्यवहार से दुखी होकर, सन्यास जीवन ग्रहण किया और रामायण में जहां भी उन्हें मौका मिला वहां उन्होंने उस दुख को प्रतिशोध के रूप में लिखा। जब  वनवास के दौरान सीता जी  और श्री राम  अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंचे, तब उन्होंने माता अनुसूया के मुख से, उस समय स्त्रियों के लिए प्रचलित  गतिविधियों कहलवाया , जो इस समाज में  स्त्रियों की परिधि तय करता हुआ प्रतिष्ठित हुआ। आज भी स्त्रियों का आकलन इसी परिधि के अंतर्गत किया जाता है। 


इस श्रेणी में दूसरे नंबर पर आते हैं व्यास, जिन्होंने द्रौपदी को यह समझाया कि, अपने केशों को कभी खुला मत छोड़ना, नहीं तो तुम्हारा अनिष्ट होगा, लेकिन दुशासन को कभी नहीं सिखाया कि, किसी स्त्री के केशों को हाथ मत लगाना, नहीं तो मृत्यु हो जाएगी तुम्हारी। ऐसे सोच वाले व्यक्तियों का लिखा सब कुछ बच्चे बच्चे की जुबान पर है, पर हमारी ऋषिकाओं का लिखा कुछ भी बच्चे को क्या किसी साहित्यकार को नहीं पता! क्यों? वैसे हमारे देश में नारियों की पूजा होती है।

लोग यह भी कहते हैं कि ऋषिकाओं  के लिखे को मान्यता नहीं मिली। मैं यह पूछती हूं, अरे! चंद मुट्ठी भर लोग कौन होते हैं? मान्यता देने वाले कि, स्त्रियों ने जो कुछ लिखा वह मान्यता के काबिल नहीं! जबकि सही अर्थों में देखें तो भारत की हिंदू धर्म की परिधि नारी पर निर्भर करती है। नारी ही धर्म है। नारी को ही पूजा जाता है तो नारी की बुराई लिखी हुई रामचरित्र मानस कैसे कबूल कर लिया लोगों ने। इस हिसाब से तो राम चरित्र मानस निकृष्ट पायदान पर आनी चाहिए और जिन्होंने उसे ऊंचे पायदान पर बिठाया है, उनके विचारों से लेकर दृष्टि तक में दोष ही दोष है इस बात को प्रमाणित करते हैं। 


इसलिए तो मैं अपना लिखा अपने आप इतना प्रतिष्ठित करके जाऊंगी कि किसी पुरुष वर्ग में हिम्मत नहीं उसे काट दे। चाहे वह दीपिका दोहा छंद हो या स्त्री तंत्र की व्याख्या।




हिंदुस्तान में ऐसी कहावतें प्रचलित हैं, कि "जब सौ पापी मरते हैं, तब एक औरत पैदा होती है।" और “औरत ही औरत की दुश्मन है।” और इस बात को सीना ठोक कर औरतें कहती है कि, “औरत औरत की दुश्मन है।” ऐसा बना दिया है हमने औरतों को वे खुद कहती हैं कि "औरत औरत की दुश्मन है।" और यह सब बातें हमें दी हैं «राम चरित्र मानस» ने और सभी पुराणों ने, जिसमें भर भर के स्त्रियों की बुराई लिखी है। विष्णु पुराण के पहले पन्ने पर ही यह बात अंकित है कि, “कलयुग में औरतें बाल खोलकर भ्रमण करेंगी।” बाल खोलना औरतों का क्या पाप है? या फिर खुले बालों को देखकर पुरुषों की निगाहों में जो पाप डोल जाता है, उस पर बंदिश लगाने की जरूरत है। ऐसे ही जाने कितनी मूर्खतापूर्ण बातें पुराणों में लिखी हैं। लेकिन उनका वर्चस्व उठाने के लिए वेदों के साथ उनका नाम जोड़ दिया जाता है, जबकि वेद  वैदिक काल में लिखे गए और पुराण सतयुग से लिखने शुरू हुए, जबसे भक्ति काल हमारी संस्कृति में आया। ऋषि मुनियों के पुरुष वर्ग ने जो कुछ भी लिख दिया, वह पत्थर की लकीर मानकर हम क्यों माने? यह अब हमें सोचने की जरूरत है। मेरी लिखी बातों को समझने का फायदा उन्हें हैं, जिन्हें भविष्य तय करना है, जो भविष्य निर्माण में अपना योगदान देना चाहते हैं। यदि भविष्य में पिता तत्व की स्थिरता चाहते हैं, तो मेरी लिखी बातों पर गौर कीजिए, नहीं तो इस दुनिया में सब कुछ होगा बस पिता तत्व ही नहीं होगा।


मैं अपने एक   व्याख्यान में कहा था "औरत औरत की दुश्मन होती है।" इस पर एक बार फिर आना चाहती हूं। वैसे तो मैं साहित्य जगत में मैं अपनी जिंदगी के अनुभवों को शेयर नहीं करती, क्योंकि लेखक जब लेखनी को लिखता है, तो वह जिस वर्ग पर लिख रहा है, उस वर्ग को अपने आप में  समाहित मानकर लिखता है, जैसे मैं लिखती हूं स्त्री जाति के लिए, तो संपूर्ण स्त्री जाति ही बनकर मैं चित्रण करती हूं, शब्दों का। इसलिए केवल अपने निजी अनुभवों को समाज पर कभी थोपना नहीं चाहिए कि, हमने ऐसा अनुभव किया है, तो सभी के लिए एक ही अनुभव से हम जिंदगी को तोलें। यह गलत है। लेखन जब ही कामयाब होता है, जब आप जिस समस्या को लेकर आए हैं, उस समस्या को दूर होने के उपाय, आप समाज को दे सकें, इसलिए किसी एक समस्या को समाज में रखकर सबको एक साथ नहीं तोला जा सकता, लिखने के पैटर्न का मापदंड यह होना चाहिए कि, आप जो समस्या रख रहे हैं, उसके क्या उपाय समाज में दे सकते हैं? 


अब आती हूँ, अपनी बात पर, "औरत औरत की दुश्मन होती है।" इस पर मैं अपना एक निजी अनुभव आपके साथ शेयर कर रही हूं। नजीबाबाद में मेरे दो सहेलियां है और उसी तरह से दो सहेलियां फेसबुक पर हैं। विचारों से हमारी ट्यूनिंग एक जैसी है। हम पांचो स्त्रियां हैं और एक दूसरे के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं, जिसमें सबसे बड़ी बात है, एक दूसरे का सपोर्ट करना, बात कोई भी हो। हम एक दूसरे का सपोर्ट करके चलते हैं और शायद हमसे गहरी मित्रता किसी की नहीं हो सकती। हम चारों औरतें हैं और कहीं से कहीं तक एक दूसरे की दुश्मन नहीं है। इसके विपरीत यदि 4 औरतें एक घर में होती हैं, तो वे एक दूसरे की दुश्मन बनने लगती हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें मॉनिटर करने वाला पुरुष वर्ग होता है। पुरुष वर्ग विवाह के पश्चात वचन देकर बंधता है कि, वह अन्य स्त्रियों का सम्मान माता के समान करेगा और अपनी पत्नी की बात को सर्वोपरि रखेगा। लेकिन इस वचन को भंग करते हुए अपनी पत्नी के अलावा पुरुष वर्ग घर की सभी औरतों को बढ़ावा देते हैं। जिससे तना कशी की शुरुआत होती है, तनाकशी का बीज बोकर पुरुष वर्ग एक तरफ खड़ा होकर तमाशा देखता है और धीरे-धीरे घर की चारों औरतें एक - दूसरे की दुश्मन हो जाती हैं। यह हकीकत है, क्योंकि पुरुष वर्ग के दिमाग में यह एक बात फीड है कि पत्नी पैरों की जूती होती है, उसे पैरों में ही रखना चाहिए। जिस घर में औरत, औरत की दुश्मन है, वहाँ वर्चस्व पुरुष का ही रहता है। कठपुतलियों की तरह मॉनिटर करता है, घर की औरतों को और इस बात को आज से पहले किसी ने नहीं लिखा फर्स्ट टाइम मैंने ही लिख रही हूँ। अब देखना यह है कि मेरा ऑब्जर्वेशन क्या रंग लाता है?


आपने यदि पढ़ा हो! मैंने स्त्री तंत्र में स्त्री के स्वभाविक गुणों पर चर्चा की है। सबसे प्रमुख स्वभाविक गुण स्त्री का सम्मान पर समर्पण है। जब उसे सम्मान मिलता है, तो वह अपना सर्वस्व निछावर कर देती है, सम्मान देने वाले पर। यह उसका स्वाभाविक गुण है। इसी के आधार पर वह चुनने की प्रक्रिया करती है। आपने समाज बनाकर उसके इस प्रक्रिया को बाधित किया और सिर्फ बाधित ही नहीं किया, सृष्टि की सारी प्रक्रिया को बदल दिया। स्त्री के स्वभाव की प्राथमिकता पर ही वैदिक काल में पति त्याग की परंपरा थी। आपने सब कुछ बदल दिया उसको अपने बनाए हुए समाज में रहने के लिए विवश किया ,लेकिन उसके स्वभाव को बदल नहीं पाए। स्त्री सदियों से आप के बनाए हुए समाज के सारे नियम सहती है, निभाती भी है, मरते दम तक। परंतु यह बात भी अटल सत्य है कि, यदि उसे अपने जीवनसाथी से सम्मान नहीं मिलता, तो वह मन से उसका त्याग कर देती। 


जिस तरह पुरुष वरीयता के चलते, हम मानव विकास क्रम में जानवर पैदा करने लगे हैं। उसी तरह एक दिन मन के त्याग के चलते हम पिता तत्व को विलीन कर देंगे। अगर इसे रोकना चाहते हैं, तो प्रत्येक पुरुष को उस स्त्री का सम्मान करना है, जिसे वह अपनी पत्नी के रूप में बिहा कर लाया है। 


आज आपके सामने "औरत, औरत की दुश्मन है" की एक व्याख्या और रख रही हूं। जब औरत इतनी स्वतंत्र थी कि, सृष्टि के विकास के लिए, वह एक से अधिक नरों का चुनाव कर सकती थी, जैसे मेनका ने राक्षस से ध्रुपद को पैदा किया और शकुंतला को विश्वामित्र से, तब औरत, औरत की दुश्मन नहीं थी, लेकिन जिस पल पुरुष ने अपने वर्चस्व के लिए, समाज की स्थापना की, तो यकायक "औरत, औरत की दुश्मन हो गई" आखिर क्या खेल चल रहा यह सब सदियों से? परंतु अब इस खेल का अंतिम दौर चल रहा है। यदि हमने खुशी से स्त्री तंत्र की स्थापना नहीं की, तो पिता तत्व का विलीनीकरण इस संसार में कोई नहीं रोक पाएगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Featured post

सहयोग समिति संस्था क्या है

सहयोग समिति क्या है? सहयोग समिति एक सामाजिक संस्था है जो अधिनियम 21,1860 के अंतर्गत पंजीकृत है पंजीकरण संख्या 2496/2005-2006 है। जि...