रविवार, 3 मई 2020

स्त्री_तंत्र_की_व्याख्या दशम अध्याय

#स्त्री_तंत्र_की_व्याख्या
दशम अध्याय_( स्त्रियों के जाने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें और स्त्रियों की योग्यताएं) 

#सात #फेरों #के #सातों #वचन #प्यारी #दुल्हनिया #भूल #न #जाना

इस पंक्ति की अभिव्यक्ति मेरे सभी व्याख्यानों को शत प्रतिशत सही साबित करती हैं यह पूरा गीत जिस भी फॉर्मेट में लिखा गया हो परंतु गीत की पहली पंक्ति मेरे व्याख्यानों पर खरी उतरती है। 

विवाह पद्धति के विश्लेषण के दौरान यह सिद्ध हो चुका है कि सातों वचन स्त्री ही पुरुष से लेती है इसलिए इन सातों वचनों का खंडन ना हो इस बात का महत्व पुरुष से कहीं ज्यादा स्त्री पर होता है हम स्त्रियां इन वचनों को भूल गए हैं कि यह वचन हमने उस पुरुष से लिए हैं जो पति रूप में हमारे अर्धनारीश्वर युग्म को पूर्ण करेगा इसका अर्थ यह भी है कि हमने अपनी मर्यादा का स्तर खुद नीचे गिराया है वचनों को भुलाकर तभी हम गुलामी की दास्तां में अपना जीवन जी रहे हैं

हमने उन वचनों का मान नहीं रखा जो मंत्रों के बीच हमने उस पुरुष से लिए जो पति रूप में हमारे जीवन की सहभागिता प्राप्त करता है बल्कि जो जीवन हम सभी स्त्रियों ने जिया वह वचनों की परिपाटी से बिल्कुल अलग और विपरीत था और है इन वचनों की परिपाटी पर स्त्रियां स्वयं अपनी स्थिति का आंकलन कर सकती हैं और यदि अपनी स्थिति सुधारना चाहती हैं तो यह बात उन्हें हरदम ध्यान रखनी होगी कि उन्होंने युग्म बनाने के लिए संयुक्त जीवन यापन पर कोई भी वचन नहीं दिया है बल्कि सभी वचन उस पुरुष से लिए हैं जो हमारे आगामी जीवन की सहभागिता करेगा

कहा जाता है की जब कोई वस्तु या प्राणी अपना स्तर भूलकर निचली श्रेणी में पदार्पण करती है तब वह अपनी सार्वभौमिकता खो देती है हम स्त्रियों ने भी अपने ज्ञान, स्वाभिमान, मर्यादा के स्तर को निचली श्रेणी में रखकर उसका अपमान किया है इसलिए ही स्त्री ने अपनी सार्वभौमिकता खो दी है। 

 मैंने जो भी बातें अभी तक जो भी बातें अपने व्याख्यान में लिखी हैं उनसे सभी शादीशुदा स्त्रियों का जीवन भी अछूता नहीं रहा वे चक्र सभी के जीवन में भी घटित होते हैं और इस कदर घटित हुए हैं कि उन्हें झेलते झेलते मेरे तन और मन का कीमा बन जाता है परंतु जब अपने तन और मन के  कीमें से अपने आपको व्यक्त करना शुरू किया जाता है, अपने अस्तित्व को लिखना शुरू किया जाता है तब धीरे-धीरे समाज में क्रांति ला कर सुधार लाया जाता है

 परंतु होता अक्सर यही है कि स्त्रियां अपने तन और मन का कीमा बनाने वाले पर दोषारोपण करके शांत हो जाती हैं परंतु वास्तविकता में गलती उनकी भी नहीं जो स्त्री के तन और मन का कीमा बनाने को उद्धत रहते हैं बल्कि गलती उस सारे सामाजिक परिवेश की है जिसमें हमारा सभी का जीवन उलझा हुआ है जिसे दूर करने के लिए पहला कदम खुद ही उठाना पड़ता है इस विचार के साथ कि हम जो भी करें उसका प्रभाव हमारी समूची स्त्री जाति पर पड़े ताकि उनकी दशा सुधर सके।

स्त्रियों पर दोषारोपण करने से पहले पुरुषों को खासकर शादीशुदा पुरुषों को अपने गिरेबान में झांक कर यह देख लेना चाहिए क्या उन्होंने विवाह के सातों वचन प्रतिबद्धता से निभाए हैं

उदाहरण के लिए यदि किसी को शिकायत है कि उनकी पत्नी उनके माता-पिता का ख्याल नहीं रखती तब उन्हें एक बार यह सोचना चाहिए कि अपनी पत्नी को उन्होंने यह वचन दिया है कि वे उनके माता-पिता का ध्यान उनका सम्मान पुत्र वत करेंगे और इस वचन की धुरी पर उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि वह दिन में कितनी बार अपनी पत्नी के माता-पिता से वार्तालाप कर उनका हालचाल पूछते हैं वृद्धावस्था में अक्सर दवाइयों की जरूरत होती है अपने अस्तित्व में झांक कर यह पता करने की कोशिश करें कि आपने विवाह के अनुबंध से अब तक कितनी बार फोन पर दवाई के लिए अपनी पत्नी के माता-पिता को याद दिलाया की आप दवाई खा लीजिए यदि नहीं तो आपको अपनी स्त्री के ऊपर दोषारोपण करने का अधिकार नहीं और दूसरी बात यदि आपकी पत्नी आपके माता पिता की सेवा नहीं करती आप के अकॉर्डिंग तब आपको यह बात ध्यान रखनी चाहिए की जिनकी सेवा का भार आप अपनी पत्नी के कंधों पर डाल रहे हैं वह आपके माता-पिता हैं यदि वे अपने कार्य भार के कारण आपके माता-पिता की सेवा नहीं कर पा रही है तो यह कर्तव्य आप निभा सकते हैं इंसान के तौर पर किसी एक को कर्तव्य की चूड़ी के बोझ के नीचे दबा देना सरासर बेवकूफी है दब आप जिम्मेदारियों का हार बना कर अपनी पत्नी के गले में डालेंगे तो वह विनाश को दावत देने वाली स्थिति पैदा करेगा ही उससे आप बच नहीं सकते।

#स्त्री_ममता_का_सागर
स्त्री भावनाओं से भरा सागर है इसलिए उसके मन में ममता का सागर हिलोरे मारता है और यह उसका स्वाभाविक गुण है कि वह हर एक को मातृत्व प्रदान करती है

कहा जाता है की सागर में पूर्णमासी के दिन ज्वार भाटा तरंगित होता है यह एक प्राकृतिक उदाहरण है कि यदि आपके मन में स्त्री के प्रति निश्चल प्रेम है आदर है सम्मान है जिसके कारण आपका मन पूर्णमासी के चंद्रमा की तरह सुंदर है तो वह अपने मन में बसे ममता के सागर से उठते ज्वार भाटा के आगोश में आपके संपूर्ण परिवार को बांधकर अपने प्रेम को पूर्णता प्रदान करेगी और यह एक प्रकृतिक क्रिया है यदि आप सचमुच पूर्णमासी का चांद है तो स्त्री के प्रेम रूपी ज्वार भाटे के प्रेम से आप अछूते नहीं रहेंगे। 

दूसरी बात स्त्री के अंदर ममता का सागर भरा हुआ है वह हर एक मिलने वाले प्राणी से प्रेम करती है और मातृत्व प्रदान करती है यह उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए वह किसी से शारीरिक प्रेम ही नहीं करती वह उसी का समर्पण अपने लिए स्वीकार करती है जिसके मन में उसकी भावनाओं के प्रति सम्मान होता है परंतु हमने अपनी सामाजिक परिधि पर प्रेम को वासना का घोल बना दिया है स्त्री को भलीभांति पता है कि निश्चल प्रेम क्या है और वासना क्या है? परंतु हमने अपनी मानसिकता से प्रेम को वासना का घोल बनाकर स्त्री पर पूरी तरह डाल दिया है ताकि उसका अंग-अंग वासना में लिप्त हो जाए। यह हमारे समाज की परिपाटी का सबसे बड़ा दोष है और जिसके चलते नियम बनाए गए कि स्त्री को पर पुरुष से प्रेम करने का अधिकार नहीं स्त्री को प्रेम सिर्फ अपने पति से करना चाहिए क्योंकि हमने प्रेम को ममता के बजाय वासना के घोल में परिवर्तित कर दिया है और दूसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि हम अपने धर्म की कोई भी शिक्षा अपनी शिक्षा पद्धति में नहीं रखते जिस कारण भ्रम पैदा होते हैं हम क्यों अपनी शिक्षा पद्धति में बाबर हुमायूं अकबर की लड़ाई हो का वर्णन पढ़ते हैं? हम क्यों अपनी शिक्षा पद्धति में गायत्री मंत्र का अर्थ नहीं पढ़ते? क्यों अपनी शिक्षा पद्धति में महामृत्युंजय जाप का अर्थ नहीं पढ़ते? क्यों अपने संस्कारों को हम शिक्षा पद्धति में नहीं पढ़ते और अगर हमें वीरता की ही शिक्षा लेनी है तो क्यों हम टीपू सुल्तान को पढ़ते हैं? क्यों हम महाभारत के अध्याय नहीं पढ़ते? जहां वीर सेनानियों की कोई कमी नहीं आखिर क्यों नहीं हिंदू धर्म का कोई भी संस्कार शिक्षा पद्धति में पढ़ाया जाता? यह सवाल बिगड़ते हुए हालात पर एक हथौड़े नुमा प्रश्नचिन्ह है? 

इन सभी अज्ञानों के चलते हमारी हिंदू पीढ़ी विक्षिप्त विचारधारा से ग्रसित हो रही है आज युवा पीढ़ी सिर्फ यह ज्ञान पढ़ती है कि स्त्री को प्रेम सिर्फ अपने पति से करना चाहिए क्योंकि प्रेम को वासना के घोल बनाकर उनके मन मस्तिष्क पर बुरी तरह डाल दिया गया है जिसके चलते वह यह सवाल करने लगे हैं कि हम ऐसे धर्म को क्यों अपनाएं जहां श्री कृष्ण ने प्रेम किसी स्त्री से किया और विवाह 108 स्त्रियों से किए हैं सिर्फ और सिर्फ अज्ञानता है सिर्फ इस बात की कि प्रेम को हमने वासना को घोल बनाकर उनके मन मस्तिष्क पर डाल दिया है दूसरा कि हम किसी भी अवतार की लीला का वर्णन सही ढंग से स्पष्ट शब्दों में नहीं करते व्याख्या सिर्फ पुरुष प्रधान परिपाटी पर की जाती है यह एक कड़वी सच्चाई है जिसने स्त्री की अपनी सोच को बिल्कुल खत्म कर दिया है और सबसे बड़ी बात स्त्री हमेशा स्त्री तंत्र के नियम से ही सोचती है यह उसका स्वभाव है और पुरुषों को स्त्री तंत्र समझ नहीं आता इसलिए वे उन्हें बेवकूफ करार कर मंदबुद्धि कह देते हैं लेकिन यह स्वीकारने को तैयार नहीं होते कि प्रकृति आज भी स्त्री तंत्र पर ही प्रवाहित हो रही है।

इस संसार का एक नियम है जो अटल सत्य है जो देता है वह ईश्वर है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति जो समाज को कुछ देकर जाता है ईश्वर की तरह समाज में पूजनीय होता है।

हम सभी ईश्वर की पूजा करते हैं कुछ साकार रूप में कुछ  निराकार रूप में। उनकी तपस्या करते हैं, पूजा करते हैं, अर्चना करते हैं और प्रसन्न होने पर वह हमें सुख समृद्धि शांति प्रदान करते हैं। जिससे हमारा जीवन सुचारू रूप से चलता है। सुख समृद्धि शांति एक प्रसाद है जो हमें ईश्वर की तपस्या करने के बाद ही प्राप्त होता है।ठीक उसी प्रकार हम प्रकृति यानी धरा की पूजा करते हैं, अर्चना करते हैं। जिसके फलस्वरूप हमें अन्न की प्राप्ति होती है, वह हमारा प्रसाद है जो हमें धरा की तपस्या करने के पश्चात मिलता है।

ठीक उसी प्रकार स्त्री है जिसकी नियम पूर्वक साधना और तपस्या करने के पश्चात कामसुख रूपी प्रसाद की प्राप्ति होती है जिसके फलस्वरूप मानवता का विकास होता है यह एक अटल सच्चाई है इसे नकारने वाले ईश्वर को नकार रहे हैं। 

परंतु हमारे समाज में जो कि पुरुष प्रधान समाज है और उसी परिपाटी पर प्रवाहित किया जा रहा है, वहां पर विवाह पद्धति द्वारा शुद्धता के पश्चात, सबसे पहले प्रसाद रूपी कामसुख को प्राप्त किया जाता है, वंश की उत्पत्ति की जाती है, उसके बाद स्त्री को अपनी सेवा में संगलन कर लिया जाता है।

ना ही उसकी तपस्या की जाती है, ना ही साधना, ना ही पूजा, नाही अर्चना क्योंकि हमने उसके प्रसाद को प्रथम चरण में ही प्राप्त कर लिया है इसलिए उसकी सेवा साधना की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी जाती। यही कारण मानव जाति के विनाश का है क्योंकि उसकी उत्पत्ति के साधन का अपनी आवश्यकता अनुसार उपयोग करके उसे अपने अनुसार ही चलाया जाता है, इसलिए ही यह सृष्टि विनाश की ओर जा रही है क्योंकि हमने इस वक्तव्य को बिल्कुल भुला दिया है कि जो देता है वह ईश्वर होता है

इसे सुधारने का  एक मात्र उपाय  यही है  कि चक्र भी ऐसा होना चाहिए की विवाह पद्धति पर शुद्ध होने के पश्चात आप वह स्त्री, जो आपकी वंशवेल को आगे बढ़ाएगी उसकी तपस्या कीजिए, उसकी साधना कीजिए और तो वह प्रसन्न होकर आपको प्रसाद रूपी कामसुख के अमृत्व को प्रदान करेगी जिसके फल स्वरुप नवजीवन का निर्माण होगा इसलिए ही परिवार निर्धारण के पहले बिंदु पर मैंने कामौर्य का नगण्य स्थान केंद्रित किया था।

आजकल अधिकतर गृहिणियों के बात करने का दायरा अपनी सहेलियों के बीच सिर्फ और सिर्फ कामसुख के विषय के मध्य अटक कर रह गया है, जिसे उन्होंने अपने हंसी मजाक के क्षेत्र में उतार लिया है।  उनका यह दायरा उनके बच्चों में भी स्थानांतरित हो रहा है। इस विषय की भयानकता इस बात से प्रदर्शित होती है कि जो प्रसाद रूपी कामसुख स्त्रियां तपस्या और साधना के बाद अपने संरक्षक को देती हैं जिसके उपरांत नवजीवन का निर्माण हो, मानव जाति का विकास होता है उसके महत्व को उन्होंने खत्म कर मजाक के पायदान पर सीमित कर दिया है, जिस कारण वे खुद ऐसी भयानक स्थिति में आ गई है वेश्या कुल में रहने वाली नारियों और गृहिणियों में अंतर समाप्त हो गया है इस बात का यह मतलब नहीं है कि जो स्त्रियां वेश्या कुल में उतर गई है वे स्त्रियां कहलाने लायक नहीं है! क्योंकि स्त्री मानव जाति का विकास करती है चाहे वह किसी कुल में वर्गीकृत क्यों ना कर दी गई हो वह समाज को नवजीवन देती है इसलिए प्रत्येक स्त्री ईश्वर का दर्जा रखती है। 

गृहिणियों  की यह भयानक स्थिति पुरुषों द्वारा की गई है, इसे नकारा नहीं जा सकता क्योंकि ममता के सागर वाले मातृत्व स्थान पर उन्होंने प्रेम को वासना का घोल बनाकर उड़ेल दिया है जिससे स्त्रियों का तन मन वासना में लिप्त हो गया है और यह घोल उन पर निरंतर डाला जा रहा है। इस बात पर हमने रोक नहीं लगाई और उन्हें एक सम्माननीय, पूजनीय दर्जा हमने नहीं दिया जैसे कि शादीशुदा पुरुष वर्ग वचन देता है कि अन्य सभी स्त्रियां उसके लिए माता के समान है वही माता का सम्माननीय दर्जा स्त्रियों को पुरुषों द्वारा दिया जाए और वचनों का अनुपालन भी होगा नहीं तो जो विक्षिप्त मानसिकता पुरुष वर्ग समाज में फैला रहा है वह उसका सर्वनाश करने के लिए पर्याप्त है अब सोचना पुरुष वर्ग को है कि अपनी मानसिकता में बदलाव कर समाज का सुधार करें या फिर विनाश की ओर अग्रसर हो अपने अस्तित्व का सर्वनाश कर लें।

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