मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

#स्त्री_तंत्र_की_व्याख्या पांचवा अध्याय - दीपिका माहेश्वरी।

#स्त्री_तंत्र_की_व्याख्या
 पांचवा अध्याय_(परिवार निर्धारण के नियम के महत्वपूर्ण बिंदु)


मेरे इस कदम से परिवार निर्धारण के नियमों की रूपरेखा तय करने में सभी को मदद मिलेगी क्योंकि हम एक प्रजातंत्र देश में रहते हैं सभी के पास अपनी बुद्धि, विवेक है और अपना अपना परिवार है। जो मैं बिंदु दे रही हूं, उन बिंदुओं के समावेश से सभी लोग अपने अपने परिवार के नियमों का निर्धारण करें ऐसी आशा करती हूँ...

सबसे पहला बिंदु है
1) #कामौर्य #को #नगण्य #स्थान #पर #रखना

प्राचीन काल में परिवार का निर्धारण इस बिंदु को सर्वश्रेष्ठ मानकर किया गया यानी कामौर्य के आधार पर किया गया इसलिए ही इसकी प्रधानता  के साथ पारिवारिक संस्था का विकास विनाश की ओर जा रहा है।
जानती हूं कि यह मनुष्य की मुख्य जरूरतों में से एक है जितनी यह मुख्य है उतनी सरलता से यह पूर्ण भी हो जाएगी यदि हम इसे प्रधानता नहीं देंगे तब भी क्योंकि यह भावना प्रधान होती है यदि हम अपने जीवनसाथी की भावनाओं का ध्यान रखें तो हमें अपनी इस जरूरत को पूरा करने के लिए कोई भी प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा क्योंकि स्त्री जाति का यह स्वभाविक गुण है कि जो उसे मिलता है उसे हजार गुना वह बढ़ा कर वापस करती है और दूसरा यह कि नारी जाति सम्मान पर समर्पण करती है यदि उसकी भावनाओं का ध्यान रखा जाए उसके सम्मान का ध्यान रखा जाए तो आपकी जरूरत है वह बिना कहे ही पूरा कर देगी यह उसका स्वाभाविक गुण है जिसके लिए कोई विचार रखना आपके बुद्धि के दोषों को उजागर करेगा क्योंकि नारी एक नियम है और नियम पर सवाल नहीं उठाए जाते।
 परिवार निर्धारण का दूसरा महत्वपूर्ण नियम बिंदु_

2) #स्त्रीजाति #की #भावनाओं #की #प्रधानता

स्त्री की संरचना भावों से की गई है और भावनाएं तरल रूप होती है इसलिए आप इस तरह समझ सकते हैं की स्त्रियां भावनाओं के रूप में समुद्र जैसी हैं जिनकी स्थिति आज मैं आपके सामने रख रही हूं
स्त्रियां आज के समय में भावनाओं का वह समंदर है जिसे समाज ने तपती अकाल की धूप में रख रखा है और इस कारण उसका पानी निरंतर सूख कर बादलों के रूप में आकाश में जमा हो रहा है।

आप गौर करें तो समुंद्र का एक प्राकृतिक नियम है यदि गर्मी से समुद्र का पानी सूख कर भाप बनता है और बादलों में समाता है तब बादलों से उस पानी की  बरसात  भी होना  अत्यंत आवश्यक है । यह प्राकृतिक नियम है।

यहां पर  यही बात गौर करने की है  कि हमने स्त्री रूपी भावना के समुद्र को  अकाल रूपी धूप में झुलसा रखा है। साथ ही इस नियम की पाबंदी भी लगा दी है कि भाप बनकर उड़ने वाला भावनाओं का समंदर जब बादल के रूप में आकाश में जमा हो, तो उसे बरसने की आजादी नहीं है।  यह नियम पिछले 2500 वर्ष से स्त्री जाति पर लगा हुआ है। अब आप खुद ही इसका चित्रण कर समझने की कोशिश कीजिए की स्त्री की स्थिति क्या है? यदि इसका हमने कोई भी हल नहीं निकाला तो वह जो बादलों का जमावड़ा है फट जाएगा और संसार में प्रलय आ जाएगी। तब भी ऑटोमेटिकली संसार नारीमय  हो जाएगा क्योंकि बादलों का जो वेग बहेगा वह नारी भावनाओं का ही वेग होगा और जब ऐसा होगा तो पुरुष का अस्तित्व मिट जाएगा।

इसलिए यदि संसार से पुरुष का अस्तित्व मिटाना नहीं चाहते या यूं कहूं कि जिस पिता तत्व को संसार में लाया गया। वह नेचुरल नहीं है उसका अस्तित्व बरकरार रखना चाहते हैं, तब स्त्रियों की भावनाओं को संसार में जगह देनी होगी। उसके लिए स्त्री को समझना होगा, उनकी भावनाओं को प्रमुखता देनी होगी और इसके लिए स्त्रियों के विचारों को  समझना होगा,  उनके साथ  समय बिताना होगा, अपनी लगाए गए नियमों की बंदिशें  हटानी होंगी।

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि स्त्रियों की भावनाओं को पंक्ति बद्ध करके  आप उसे फॉलो कीजिए अगर आप अपना अस्तित्व चाहते हैं क्योंकि संसार में पिता का अस्तित्व प्राकृतिक नहीं है उसे समाज में बनाया गया है और परिवार के लिए पिता का अस्तित्व बरकरार रखने के लिए स्त्रियों की भावनाओं का फॉलो किया जाना बेहद जरूरी है।

नारी एक नियम है जिसे बदला नहीं जा सकता और नारी का स्वाभाविक गुण है कि उसे जो कुछ मिलता है वह उसे हजार गुना बढ़ा कर वापस करती है

यह परिवार निर्धारण का तीसरा बिन्दु, वह राज खोलेगा, जहाँ लोग कहते हैं कि स्त्री क्या है? चाहती क्या है? समझ नहीं आता.. इसलिये इस बिन्दु में लिखी व्याख्या का एक एक शब्द गौर से पढ़े नियमित पढ़ने वाले.....

3)#चर्चा #के #पायदान #की #महत्ता

स्त्री प्रकृति का नियम है जिसे बदला नहीं जा सकता और भाव प्रधान होने के कारण उसका तन और मन बहुत कोमल है इसीलिए पुरुष की रचना की गई एक रक्षक के रूप में संरक्षक के रूप में जो स्त्री की कोमल तन और मन की रक्षा कर सकें, सेवा भाव से। इस व्याख्या में कहीं भी आधिपत्य का अधिकार दर्शाया नहीं गया क्योंकि नियम पर एकाधिकार कर पाना संभव नहीं नियम को नियम के अनुसार निभाकर उसको पूर्ण किया जाता है, तभी उपलब्धियां होती है, विस्तार होता है।

क्योंकि नियम सेवा मांगता है और सृष्टि के विस्तार के लिए स्त्री रूपी नियम की सेवा आवश्यक है। वह भी उसके अपने अनुसार, तभी सृष्टि विकास होगा और पिता तत्व की प्राप्ति होगी। यह भी कह सकते हैं परिवार निर्धारण के लिए यदि पिता तत्व को जीवित करना है तो पुरुष का स्त्री में विलीनीकरण आवश्यक है यही स्त्री पुरुष का एकीकार रूप अर्धनारीश्वर है। जिसे हम परमपिता परमेश्वर कहते है।  यह हमें तभी प्राप्त होता है जब पुरुष द्वारा स्त्री की सेवा की जाए उस की इच्छाओं के अनुरूप तभी हमें पिता तत्व की प्राप्ति होगी और यह तत्व जब तक ही जीवित रहेगा जब तक स्त्री की सेवा उसके मन अनुरूप की जाएगी।

परंतु संसार में पिता तत्व को ऊपर रखने के लिए ऋषि-मुनियों ने पुरुष को आधिपत्य का अधिकार दिया। जिसके चलते पुरुष सिर्फ स्त्री को वासना रस का स्रोत समझकर भावना के सागर में से वासना रस पीना ही अपना अधिकार समझने लगे और उन्होंने स्त्री की महत्ता को खत्म कर दिया।

जिसके चलते हम यह भूल गए की जिस पिता तत्व की प्राप्ति के लिए स्त्री रूपी नियम की सेवा की जानी थी नियम पूरा होने पर वह परीक्षा भी लेगी और हमने वह परीक्षा रूपी चर्चा का पायदान ही खत्म कर दिया।

जबकि नियम वत ईश्वर की सेवा और तपस्या करने पर ईश्वर इच्छित वर की प्राप्ति से पहले परीक्षा लेते हैं। इसलिए ही स्त्री के गुणों में से 1 गुण बौद्धिक परिचर्चा का भी है। स्त्री समागम के लिए उस पुरुष का चुनाव करती है जो बौद्धिक स्तर पर उसे सम्मानित कर सके और सम्मान के प्रतिउत्तर में वह उस पुरुष को हर प्रकार का सुख देकर सम्मान जनक पदवी पर बिठाकर पिता तत्व से अलंकृत करती है।

पिता तत्व सिर्फ बच्चे का पिता बनना नहीं होता बल्कि पिता तत्व वह पूजनीय है अलंकार है जिसे हम परम पिता परमेश्वर कहते है जो सृष्टि संरक्षक है पालनकर्ता है। यदि पुरुष को पिता की पदवी पर विद्यमान रहना है तब बौद्धिक चर्चा का यह पायदान जीवन से कभी विस्मित नही होना चाहिए।

इसलिए स्त्री के स्वाभाविक गुण वैचारिक चर्चा को निषेधात्मकता के पायदान से ऊपर उठाना होगा ताकि हम एक सुदृढ़ समाज की स्थापना कर सकें।

जब हम किसी खंडहर प्लॉट को खरीदते हैं। तब नव निर्माण करने से पहले बने हुए सारे खंडहर को ध्वस्त करना पड़ता है। जब वह ध्वस्त कर दिया जाता है तो उस क्षेत्र में कंकड़ पत्थर आदि बिखर जाते हैं, पूरी तरह और जब बाहर से कोई निरीक्षण करने आता है तो उसे उस क्षेत्र में चलने में जटिलता महसूस होती है, कंकड़ और रोडियो के कारण। इसलिए मेरा लिखा हुआ भी लोगों को जटिल लग रहा है क्योंकि मैं पुराना सब कुछ ध्वस्त करके मलवा उठा रही हूं और जब तक उस क्षेत्र से सारा पुराना मलवा उठाकर बाहर ना फेंक दूं, तब तक वह क्षेत्र जहां परिवार का नवनिर्माण होना है, किसी को ढंग से दिखाई नहीं देगा। इसलिए ही चर्चा की महत्ता के पायदान पर एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही हूं ताकि अपनी बात को और अच्छी तरीके से आप सब लोगों के सामने रख सकूं।

आदि शक्ति को शक्तियों से संपन्न प्रकाश पुंज के रूप में माना जाता है। उस प्रकाश पुंज का नारी रूप है। उस प्रकाश पुंज से आदिशक्ति ने अपनी शक्तियों का एक संग्रह तमोगुण से प्रकट किया। इसलिए ही वह अजन्मा कहा जाता है। वह अजन्मी शक्ति का रूप पुरुष शक्ति का है। उसे प्रकट करने के बाद, आदिशक्ति ने उसकी परीक्षा ली और उसे विवाह प्रस्ताव दिया। उस विवाह प्रस्ताव को उस पुरुष रूपी शक्तिपुंज ने स्वीकार किया, जिसके बाद आदिशक्ति ने उस प्रकाश रूपी शक्तिपुंज को रक्षक संरक्षक के रूप में श्रृंगारिक किया। जिसमें विनाश करने की शक्ति भी समाहित थी। इसके बाद परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति के लिए आदिशक्ति ने उस पुरुष रूपी शक्तिपुंज को अपने आधे भाग में समाहित कर लिया। उसके बाद अर्धनारीश्वर का जो रूप प्रकट हुआ वह परमपिता परमेश्वर का रूप माना गया।

अधिकतर लोग परमपिता परमेश्वर के रूप में या तो प्रकाश पुंज की पूजा करते हैं या सिर्फ और सिर्फ शिव की पूजा करते हैं आदिशक्ति से अलग करके, परंतु परमपिता परमात्मा का जो असली रूप है, वह शिव और शिवा का यह अर्धनारीश्वर रूप ही परम पिता परमेश्वर का रूप है। इसलिए ही हिंदू संस्कृति में नारी का त्याग पाप माना गया है जो नारी को त्याग कर अलग परमपिता परमेश्वर को ढूंढने जाता है वह भटकाव के सिवाय कुछ नहीं पाता। अगर परमपिता परमेश्वर को ढूंढना है तो उसमें शिव और शिवा दोनों का सम्मिलित होना आवश्यक है वही अर्धनारीश्वर रूप परमपिता परमेश्वर है यही परम ज्ञान है।

और मनुष्यों में भी जब स्त्री में पुरुष का आधा भाग समाहित हो जाता है अर्थात स्त्री में पुरुष का समर्पण अर्धनारीश्वर रूप कहलाता है वही परम ब्रह्म परम ज्ञान और परमपिता परमेश्वर है। यहां यह सवाल उठता है कि  पुरुष का स्त्री में क्यों विलीनीकरण? जवाब है क्योंकि पुरुष को परमेश्वर बनना है इसलिए पुरुष का स्त्री में विलीनीकरण अनिवार्य है।

यहां एक बात मैं बहुत स्पष्ट रूप से कह देना चाहती हूं कि यह आदिशक्ति में शिव का विलीनीकरण मन का विलीनीकरण है। विचारों का विलीनीकरण है। इसलिए स्त्री में पुरुष का विलीनीकरण वैचारिक स्तर पर होना चाहिए मन से मन का विलीनीकरण अर्धनारीश्वर रूप है परमपिता परमेश्वर का रूप है। यदि आप मन से विलीन नहीं होते स्त्री में तब आप अर्धनारीश्वर रूप को प्राप्त नहीं कर पाएंगे और परमपिता परमेश्वर की पदवी पर अलंकृत नहीं हो पाएंगे। कहने का मतलब जब पुरुष अपने हर बड़ी फैसलों में स्त्री की सहमति और भागीदारी करने लगेगा तब वैचारिक स्तर पर विलीनीकरण होगा और वह स्त्री के मन में समाहित हो जाएगा।

मैंने यहां बड़े फैसलों को इसलिए कहा है क्योंकि अधिकतर पुरुष अपने छोटे-छोटे फैसलों में अपने जीवन साथी की रजामंदी लेते हैं जैसे कपड़ों के चयन में, ड्रेसिंग सेंस में परंतु अपने व्यापार में वह अपनी पत्नी की सोच को प्रमुखता नहीं देते क्योंकि उनके दिमाग में यह है बुरी तरह से कूट कूट कर बात भरी हुई है कि स्त्री में इतनी बुद्धि नहीं होती।

मेरी इस बात से कई लोग इत्तेफाक नहीं रखेंगे क्योंकि संसार में नारी को ही समर्पण की मूर्ति माना गया है। नारी के ही समर्पण पर सारे संस्कार दिखाए गए हैं। नारी का समर्पण लोगों को भाता है कि पुरुष में नारी समर्पित हो तो भारत की तस्वीर बनेगी। वह भी संस्कारी सभ्य तस्वीर, परंतु भारत वर्ष इसी एक सोच पर बढ़ता जा रहा है फिर भी विनाश के कगार पर जा रहा है और परिवार प्रथा खत्म हो रही है। इसलिए मैं अब नारी में पुरुष के समर्पण की व्याख्या कर रही हूं हम पिछले 2500 सालों से पुरुष में नारी के समर्पण की व्याख्या पर समाज का निर्धारण कर रहे हैं और उसके बावजूद भी समाज विनाश की ओर जा रहा है तो क्यों नहीं हम इस बार नारी में पुरुष के समर्पण की व्याख्या पर समाज का निर्धारण करें हो सकता है परिवार प्रथा को बचाया जा सके।

किसी को अब भी शंका है तो उसे यह याद कर लेना चाहिए  की  शारीरिक तौर पर भी  पुरुष को स्त्री में विलीनीकरण होता है। क्या वह शारीरिक तौर पर स्त्री का पुरुष में विलीनीकरण कर सकता है? यदि नहीं तो उसे यह बात मान लेनी चाहिए कि नारी एक नियम है, जिसे बदला नहीं जा सकता और नियम को नियम के अनुसार निभाकर तपस्या की परीक्षा देकर परमपिता परमेश्वर की पदवी पर बैठा जा सकता है अन्यथा नहीं।

4) #परीक्षा #लेने #का #स्वाभाविक #गुण

नारी एक नियम है, जो अपने स्वभाव के अनुसार चलती है। नारी के स्वभाविक गुणों में 1 गुण परीक्षा लेने का भी है। लोग कहते हैं नारी कुंठित हो रही है, क्योंकि वह नग्नता की दहलीज पर जा रही है और भारतीय संस्कृति सभ्यता के अनुसार नारी नग्नता की दहलीज पर नहीं जा सकती।

मैं उन लोगों को बताना चाहती हूं की नारी प्रकृति है और प्रकृति के अनुसार चलती है शारीरिक स्तर पर पुरुष का ही नारी में विलीनीकरण होता है और वह इसी सोच पर अपनी परीक्षा की परिधि तैयार करती है।

जब शारीरिक स्तर पर पुरुष का नारी में विलीनीकरण होता है तब हमने किस आधार पर समाज की रणनीति नारी के समर्पण पर तैयार की? यह मेरी समझ से परे है।

समाज का निर्धारण चाहे जिस भी परिधि में किया गया है लेकिन नारी अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार चलती है उसके अनुसार यह तथ्य है कि पुरुष का विलीनीकरण नारी में होता है, इसलिए वह विलीनीकरण के बाद पुरुष की परीक्षा लेती है। किसी स्त्री की नग्नता को देखकर पुरुष का मन विचलित होता है इसका मतलब यह है कि उस पुरुष का मन उस स्त्री में विलीन नहीं है जिसमें वह सम्मिलित होकर परमपिता परमेश्वर के युगम में परिवर्तित हुआ था।

लोग कहते हैं कि आज का युवा वर्ग बिल्कुल बिगड़ चुका है। उसे समझाया नहीं जा सकता, वह इस कगार पर पहुंच गया है। परंतु हकीकत यह है कि स्त्री की नग्नता से युवा वर्ग इतना विचलित नहीं होता, जितना की वयोवृद्ध वयस्क पुरुष वर्ग जो कि उस सीमा रेखा को पार कर चुका है, जहां पर स्त्री पुरुष के युगम से परमपिता परमात्मा की अवस्था आती है और इसका सीधा सा मतलब यह भी है कि इस स्थिति पर पहुंचने के बाद भी वह मन से उस स्त्री में विलीन नहीं हुआ, जिस में विलीन होने के बाद वह परमेश्वर की तरह पूजा जाता इसलिए उसके मन में भटकाव है।

 यहां पर दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि जिस बिंदु पर युवा वर्ग गलत रास्ते पर जा रहा है, उस बिंदु कि हम सही शिक्षा नहीं देते हम उस पर अपने युवा वर्ग से बात नहीं करते क्योंकि हम उस बिंदु के महत्व को खुद ही भुला चुके हैं लोगों की यह भी धारणा है कि इस बिंदु पर बात ही नहीं हो सकती। मैं पिछले 3 दिन से इस बिंदु पर ही बात कर रही हूं, मैंने कौन सा ऐसा शब्द प्रयोग किया है जो बिगड़ते हुए बच्चों को और बिगाड़ दे?

यदि हमें समाज में सुधार करना है तो हमें बिंदुओं की सही शिक्षा समाज में प्रकाशित करनी पड़ेगी। नव युवकों को उस बिंदु की महत्ता और उनके उद्देश्य को बताना पड़ेगा वह भी सही ढंग से, उस परिपाटी पर नहीं जिस पर यह समाज चलता चला आ रहा है क्योंकि वह परिपाटी विनाश की तरफ जा रही है।

सीधी  सी सच्ची बात है प्राकृतिक तौर से पुरुष का ही स्त्री में विलीनीकरण है और इस विलीनीकरण के बाद स्त्री परीक्षा लेती है यदि परीक्षा से विचलित होते हैं तो दोष आप में है, यानी आप ने तपस्या पूरी नहीं की और अपने दोष को ढकने के लिए ही आपने स्त्री पर कुंठा का आरोप लगा दिया।
 जब पुरुष मन से स्त्री में समाहित हो जाएगा तो उसे किसी दूसरी स्त्री की नग्नता से कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा तब जाकर उसकी तपस्या पूरी होगी और वह परमपिता परमेश्वर की पदवी पर बैठेगा जिसे हम पति परमेश्वर कहते हैं।

नव युवकों को भी हमें इस शिक्षा को प्रसारित करना है की पुरुष का नारी में विलीनीकरण होना है ना कि नारी का पुरुष में, तब ही हम एक स्वस्थ सुदृढ़ समाज की नव स्थापना करने में सफलता प्राप्त करेंगे।

और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन स्त्री परीक्षा लेकर उसे सफलता प्रदान करेगी उसकी अपनी परीक्षा में और उसे परमेश्वर मानकर खुद भी पूजेगी और दुनिया से भी पुजवाएगी। यही हिंदू धर्म है।

लोग यह भी कहते हैं कि जो मानसिकता किताबों में सुझाई गई है अगर उसे बदल दे तो वह पाप होगा, परंतु ऐसी सोच वाले व्यक्तियों से मेरा एक विचार कि कोई भी किताब गलत नहीं है गलत सिर्फ और सिर्फ हमारी अपनी सोच है जो प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चल रही है। हम अपनी सोच को यदि सही कर ले तो हमें किसी भी किताब को पलटने की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि प्रकृतिक नियमों के विरुद्ध चलकर जो हम पाप कर रहे हैं, उससे बच जाएंगे और किताबों का सही अध्ययन कर पाएंगे।

दूसरी बात किताबें मनुष्य द्वारा लिखी गई है और यदि वह प्राकृतिक नियम की उल्टी सोच से प्रभावित होकर लिखी गई है तो वह अपने आप गलत साबित हो जाती हैं और उन्हें बदल देना किसी पाप कर्म के दायरे में नहीं आता।
अब तक मैंने जो व्याख्या की है वह वैदिक काल से भी पहले की व्याख्या है जब पृथ्वी पर स्त्री तंत्र स्थापित था इसलिए वैदिक काल आने तक स्त्रियां स्वतंत्र थी कहीं-कहीं गंधर्व विवाह और स्वयंबर तथा पति त्याग की परंपरा का अध्ययन मिलता है वैदिक काल में परंतु श्वेतकेतु ऋषि के परिवार का नियम बनाने से स्त्रियों पर बंधन लगने शुरू हुए इन बंधनों ने शंकराचार्य तक आते-आते नारी को नरक का द्वार ही बता दिया

परिवार प्रथा ना तो बुरी है और ना ही मैं इसके विपक्ष में हूं परंतु इसकी नींव जिन कारणों से रखी गई वह कारण प्राकृतिक नियम के विरुद्ध है इसलिए ही चाहती हूं कि अब नए सिरे से परिवार संस्था का नियम निर्धारण किया जाए जो प्रकृति के अनुकूल हो हम तब ही परिवार रूपी संस्था को बचा पाएंगे अन्यथा नहीं

हांलाकि समाज में परिवार के निर्धारण के बहुत समय बाद विवाह प्रथा प्रारंभ हुई परंतु यदि ध्यान से देखें तो विवाह के रीति रिवाज रसमें बहुत ही सोच समझ कर बनाई गई है

 स्त्री पुरुष का जो युग्म परमपिता परमात्मा के सदृश बनता है उस युग्म को हिंदू धर्म के सभी देवी देवताओं का आशीर्वाद दिलाने के लिए हवन द्वारा शुद्धि करा कर वेदी पर पूजन किया जाता है ताकि वह युगम  जो परमपिता परमात्मा के तुल्य स्थापित होने वाला है उसकी सारी शारीरिक अशुद्धियां धुल कर तप जैसी पवित्र हो जाए और वह जोड़ा एक दूसरे के मन का दर्पण बन सके स्त्री पुरुष के मन दर्पण में अपनी छवि देख कर उसे अपने आधे अंग में समाहित कर उस युग्म का निर्माण करें जिसे परमपिता परमात्मा कहा जाता है ताकि वह युग्म सृष्टि का विकास करें और संतान को जन्म देकर माता पिता और पालक के रूप में बच्चे की परवरिश कर सके।

परंतु आज हमारी यह पारिवारिक संस्था खंडहर  में परिवर्तित हो गई है, जिसमें बस प्रथाओं के नाम पर बंधन है। जिन्हें बहुत बोझिलता से निभाया जाता है क्योंकि भावनाएं मर गई हैं। आज के परिवार  की संस्था में  सिर्फ और सिर्फ पुरुष वर्चस्व है जोकि रक्षक संरक्षक  और विनाश का रूप है  क्योंकि उसमें विनाश की शक्ति समाहित है  इसलिए  जब आवेश आता है तो वह परिवार का विनाश करने पर आमादा हो जाता है, कारण भावना के सागर और उत्पत्ति  े के कारक की कोई भागीदारी नहीं। जबकि युग्म की स्थापना में आधा भाग भावना के सागर यानी स्त्री रूप होता है। उसका महत्व खत्म कर देने पर पारिवारिक संस्था भी भावना शून्य हो, खुश्क, सूखी, मरुस्थल सी हो गई है। जिसमें हरी भरी दूब घास की बजाएं कैक्टस के पौधे उगने लगे हैं। इसलिए जरूरी है कि यदि पारिवारिक संस्था को बचाना है तो उसमें भावनाओं के सागर की सिंचाई करनी है तभी हमारा परिवार खंडहर से नव निर्माण की तरफ बढ़ेगा।

इतना बड़ा महत्व है इस विवाह पद्धति का हमारे हिंदू धर्म में, जिसके लिए नव कोपलों में आस्था जगाना समाज के वयस्क और वयोवृद्ध प्राणियों की जिम्मेदारी है हम इस विवाह पद्धति को इस तरह अपने नव युवक युवतियों के बीच रखें ताकि उन्हें एक युगम  बनकर सृष्टि का निर्माण करने में सहायता प्रदान हो सके। जब उन्हें युग्म का, अपने धर्म का सच्चा ज्ञान होगा, तब किसी भी कीमत पर अपनी विवाह पद्धति को नकार कर आगे नहीं बढ़ेंगे। यदि समाज को, परिवार को बचाना है तो हमें विवाह पद्धति को विस्तार से नव युवकों के सामने प्रसारित करना होगा। परिवार के बाकी नियम विवाह पद्धति समझने के बाद ही लिखे जाएंगे।

इसके आगे विवाह पद्धति के बारे में चर्चा की जाएगी।

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