मंगलवार, 6 सितंबर 2022

सूर्य का आना

 


डा ० दर्शनी प्रिया



सूर्य का आना



सूर्य !
तुम्हारी लालिमा कितनी गहरी है
वीराने में खड़ी झोपड़ियां 
तुम्हारी पीली मुस्कान से
भीतर तक चमक उठती है

तुम्हारा हृदय कितना विशाल है
ईट भट्ठों और खाली परती जमीनों के दर्द को
कितनी गहराई से सोखते हो तुम

तुम अकेले ही कितने सौष्ठव से खड़े मुस्कुराते हो
समूची दुनिया को नितांत शून्यता से बचाते हो

अभी मैं देख रही हूं तुम्हारी लालिमा
जो धीरे धीरे मद्धम पड़ रही है
बदन जो थक कर चूर हो रहा है
उसने दिनभर निर्लिप्तता से 
छोड़ दिए गए का दर्द पिया है

शैल की कालिमा को कल फिर तुम्हारा इंतजार रहेगा
तुम्हारी तपन ने उसे सुर्ख काला सौंदर्य जो दिया है

 तन कर खड़े तुम्हारे वजूद ने  
ठूंठ पड़े पेडों को जिंदा बनाए रखा है
निःसारित झाड़ियां  जिन्हें कोई  पूछता नहीं
तुम हर दिन अपने सामिप्य से उन्हें
उनके होने का अहसास कराते हो

कल वे फिर बेसब्री से तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे
परती खेतों का मर्म तुम्हें ही तो सुनना है
 वे भी तुम्हारी राह तकेंगी


नाले, निर्जन  पठार,
अंतहीन दौड़ती पटरियां
खेतों की अधजली फसलें 
और संकड़ी पगडंडियां
तुम्हारे सारे सहोदर
बेजार होंगे गर तुम न आओगे
 

सूर्य तुम कितने 
सहृदयी 
कितने अपने हो

जो अकेले है
वो तुममें समा अपना दर्द भूल जाते है
तुम्हारी चमकीली मुस्कुराहट भर से 
जीवन नए राग से भर उठती है

सूर्य !  कल तुम फिर आओगे न
मुझे यकीन है तुम जरूर आओगे
क्योंकि तुम्हारे आने भर से
कई जिंदगियां फिर खिल उठेंगी।।


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